TV का सूर्यवंशम दौर ब्लैक & वाइट से स्मार्ट बनने का सफर।

Post by : Abhinandan Dwivedi (Former RJ at Radio mayur 90.8 FM)

हमें वो दिन भी याद है जब घर का सबसे छोटा बच्चा छत पर जा कर TV एंटीना को हिलाते हुए ये आवाज़ लगाता था – सिग्नल आया क्या ? नीचे रूम में बैठे दादा जी चिल्लाते हुए कहते थे – पूरब दिशा में एंटीना का मुंह करो तब आएगा। हमें वो दिन भी याद है जब घर मे TV पहली बार आया था तब पिताजी ‘महावीर मिष्ठान भंडार’ से शुद्ध घी के बने लड्डू ले कर आये थे। हमे वो दिन भी याद है जब बड़े पापाजी और छोटे वाले चाचा के बीच महज इस बात को लेकर लड़ाई होगयी की, TV किसकी रूम में लगेगा ? तब दादाजी ने कहा – दोनों के रूम में मत लगाओ, TV कोई बच्चों के देखनी की चीज है भला, इससे तो मेरे कमरे में लगवा दो। ऐसे अनगिनत भूली – बिसरी यादों को समेटे कई दशक निकल गए लेकिन TV अब भी दिल के किसी छोटे से कोने में विराजमान है। पाठकों के जहन मे ये सवाल जरूर आया होगा – दिल के किसी छोटे से कोने में क्यों ? इसपे आगे जरूर बात करेंगे।

बरहाल एक नज़र उस स्वर्णिम दौर पर डालते है जब TV और World Television Day जैसे शब्द इस वायुमंडल में गूँजने लगें। महज 39 साल की उम्र में जब ‘जॉन लोगी बेयड’ ने TV का अविष्कार किया तब उन्हें कहा पता था की कलयुग का एक दौर ऐसा आएगा जब इंसान रूपी जानवर इस TV को मोबाइल से जोड़ने की तकनीक का इज़ाद कर लेगा। 1996 में जब संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 21 नवंबर को ‘वर्ल्ड टेलीविजन डे’ के तौर पर मनाने की घोषणा की तब ये कहा पता था कि एक दिन TV स्मार्ट हो जाएगा। 21 नवंबर को पहले विश्व टेलीविजन फॉर्म की स्थापना की गई तब ये कहा पता था कि एक परिवार में TV रिमोट को लेकर युद्ध का माहौल बन जायेगा। भाई कहेगा मुझे ‘शक्तिमान’ देखनी है, बहन बोलेगी मुझे ‘गली गली सिम – सिम’ देखनी है, मम्मी कहेंगी मुझे ‘चित्रहार’ देखनी है और पापा बोलेंगे मुझे समाचार सुनना है।

1950 में TV का हिंदुस्तान में आगमन और 1959 में सरकारी प्रसारक के तौर पर दूरदर्शन का आना, मानो तालाब में एक खिले कमल की तरह दिखाई पड़ता है। दूरदर्शन की शुरूवाती दौर के समय में महज कुछ देर का कार्यक्रम प्रसारण देखते – देखते 1965 तक नियमित दैनिक प्रसारण का रूप लेने लगा।

80 के दशक में दूरदर्शन पर प्रसारित सीरियल “हम लोग” ने दर्शकों के घरों में हाज़री लगाते हुए दिल मे उतरने का प्रयास किया। जिसके बाद “रामायण”, “महाभारत” ने इस मौके को भुनाते हुए पहली गेंद पर छक्का मारा और पूरे देश मे लोगों को एक वक्त पर TV के सामने बैठने पर मजबूर किया। बाकी इस सफर में बहुतेरों कार्यक्रम आये जिन्होंने हर वर्ग की पसंद का सम्मान करते हुए दूरदर्शन की विश्वसनीयता को एक अलग उच्चाई पर ले जाने का काम तो किया ही, साथ ही साथ TV को जीवन का एक अभिंग हिस्सा बना डाला। “बाइस्कोप”, “चित्रहार”, “चंद्रकांत”, “शक्तिमान”, “जंगल बुक”, “विक्रम बेताल”, “अलिफ़ लैला” जैसे कार्यक्रम हमेशा के लिए सदाबहार बन गए।

1991 में पी वी नरसिम्हा राव जब प्रधानमंत्री की कुर्सी पर विराजमान हुए तो उन्होंने TV के विस्तार पर जोड़ दिया। जिसके बाद इस सफर में एंट्री होती है प्राइवेट चैंनलों की।
भारत मे आज प्रसारित होने वाले टीवी चैनलों की संख्या लगभग 1000 के पार पहुँच चुकी है।

21वी सदी के आतें ही, TV ब्लैक एंड वाइट से रंगीन चादर में लिपट गया। आधुनिक दौर और पैसे की होड़ में TV पर इतने कार्यक्रम आने लगे जिससे हाथों की उंगलियों पर गिन पाना मुश्किल है। फिल्मों के अलग चैनल बन गए, सीरियल के अलग, खेलों के अलग, समाचार के अलग। शायद इस ‘अलग’ शब्द ने कुछ चीजों को दिल पर ले लिया। 21वी सदी में कलयुग और घोर कलयुग के बीच ऐसी लड़ाई हुई जिसने चैनलों को अलग करने के साथ – साथ इंसान को भी एक दूसरे से अलग कर दिया। आज घर मे TV तो है, देखने वाले भी है, लेकिन शायद वो TV नही मोबाइल को देख रहे होते हैं। यहाँ आपको उस सवाल को भी याद दिलाते हैं, जिसका जवाब अंत मे देने की बात हुई थी। आखिर क्यों TV अब बस दिल के एक छोटे से कोने में विराजमान है ? मुझे लगता है इसका जवाब आप खुद समझ गए होंगे। यहां एक दूसरा सवाल ये भी आता है – आखिर TV अकेला क्यों हो गया ? क्या ये सवाल हम अपने अंतरात्मा से कर पाएंगे ? क्या इसका जवाब आज के आधुनिक लोग दे पाएंगे ? इसपे विचार कीजियेगा जरूर।

TV का ‘सूर्यवंशम’ दौर, ब्लैक & वाइट से स्मार्ट बनने का सफर

हमें वो दिन भी याद है जब घर का सबसे छोटा बच्चा छत पर जा कर TV एंटीना को हिलाते हुए ये आवाज़ लगाता था – सिग्नल आया क्या ? नीचे रूम में बैठे दादा जी चिल्लाते हुए कहते थे – पूरब दिशा में एंटीना का मुंह करो तब आएगा। हमें वो दिन भी याद है जब घर मे TV पहली बार आया था तब पिताजी ‘महावीर मिष्ठान भंडार’ से शुद्ध घी के बने लड्डू ले कर आये थे। हमे वो दिन भी याद है जब बड़े पापाजी और छोटे वाले चाचा के बीच महज इस बात को लेकर लड़ाई होगयी की, TV किसकी रूम में लगेगा ? तब दादाजी ने कहा – दोनों के रूम में मत लगाओ, TV कोई बच्चों के देखनी की चीज है भला, इससे तो मेरे कमरे में लगवा दो। ऐसे अनगिनत भूली – बिसरी यादों को समेटे कई दशक निकल गए लेकिन TV अब भी दिल के किसी छोटे से कोने में विराजमान है। पाठकों के जहन मे ये सवाल जरूर आया होगा – दिल के किसी छोटे से कोने में क्यों ? इसपे आगे जरूर बात करेंगे।

बरहाल एक नज़र उस स्वर्णिम दौर पर डालते है जब TV और World Television Day जैसे शब्द इस वायुमंडल में गूँजने लगें। महज 39 साल की उम्र में जब ‘जॉन लोगी बेयड’ ने TV का अविष्कार किया तब उन्हें कहा पता था की कलयुग का एक दौर ऐसा आएगा जब इंसान रूपी जानवर इस TV को मोबाइल से जोड़ने की तकनीक का इज़ाद कर लेगा। 1996 में जब संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 21 नवंबर को ‘वर्ल्ड टेलीविजन डे’ के तौर पर मनाने की घोषणा की तब ये कहा पता था कि एक दिन TV स्मार्ट हो जाएगा। 21 नवंबर को पहले विश्व टेलीविजन फॉर्म की स्थापना की गई तब ये कहा पता था कि एक परिवार में TV रिमोट को लेकर युद्ध का माहौल बन जायेगा। भाई कहेगा मुझे ‘शक्तिमान’ देखनी है, बहन बोलेगी मुझे ‘गली गली सिम – सिम’ देखनी है, मम्मी कहेंगी मुझे ‘चित्रहार’ देखनी है और पापा बोलेंगे मुझे समाचार सुनना है।

1950 में TV का हिंदुस्तान में आगमन और 1959 में सरकारी प्रसारक के तौर पर दूरदर्शन का आना, मानो तालाब में एक खिले कमल की तरह दिखाई पड़ता है। दूरदर्शन की शुरूवाती दौर के समय में महज कुछ देर का कार्यक्रम प्रसारण देखते – देखते 1965 तक नियमित दैनिक प्रसारण का रूप लेने लगा।

80 के दशक में दूरदर्शन पर प्रसारित सीरियल “हम लोग” ने दर्शकों के घरों में हाज़री लगाते हुए दिल मे उतरने का प्रयास किया। जिसके बाद “रामायण”, “महाभारत” ने इस मौके को भुनाते हुए पहली गेंद पर छक्का मारा और पूरे देश मे लोगों को एक वक्त पर TV के सामने बैठने पर मजबूर किया। बाकी इस सफर में बहुतेरों कार्यक्रम आये जिन्होंने हर वर्ग की पसंद का सम्मान करते हुए दूरदर्शन की विश्वसनीयता को एक अलग उच्चाई पर ले जाने का काम तो किया ही, साथ ही साथ TV को जीवन का एक अभिंग हिस्सा बना डाला। “बाइस्कोप”, “चित्रहार”, “चंद्रकांत”, “शक्तिमान”, “जंगल बुक”, “विक्रम बेताल”, “अलिफ़ लैला” जैसे कार्यक्रम हमेशा के लिए सदाबहार बन गए।

1991 में पी वी नरसिम्हा राव जब प्रधानमंत्री की कुर्सी पर विराजमान हुए तो उन्होंने TV के विस्तार पर जोड़ दिया। जिसके बाद इस सफर में एंट्री होती है प्राइवेट चैंनलों की।
भारत मे आज प्रसारित होने वाले टीवी चैनलों की संख्या लगभग 1000 के पार पहुँच चुकी है।

21वी सदी के आतें ही, TV ब्लैक एंड वाइट से रंगीन चादर में लिपट गया। आधुनिक दौर और पैसे की होड़ में TV पर इतने कार्यक्रम आने लगे जिससे हाथों की उंगलियों पर गिन पाना मुश्किल है। फिल्मों के अलग चैनल बन गए, सीरियल के अलग, खेलों के अलग, समाचार के अलग। शायद इस ‘अलग’ शब्द ने कुछ चीजों को दिल पर ले लिया। 21वी सदी में कलयुग और घोर कलयुग के बीच ऐसी लड़ाई हुई जिसने चैनलों को अलग करने के साथ – साथ इंसान को भी एक दूसरे से अलग कर दिया। आज घर मे TV तो है, देखने वाले भी है, लेकिन शायद वो TV नही मोबाइल को देख रहे होते हैं। यहाँ आपको उस सवाल को भी याद दिलाते हैं, जिसका जवाब अंत मे देने की बात हुई थी। आखिर क्यों TV अब बस दिल के एक छोटे से कोने में विराजमान है ? मुझे लगता है इसका जवाब आप खुद समझ गए होंगे। यहां एक दूसरा सवाल ये भी आता है – आखिर TV अकेला क्यों हो गया ? क्या ये सवाल हम अपने अंतरात्मा से कर पाएंगे ? क्या इसका जवाब आज के आधुनिक लोग दे पाएंगे ? इसपे विचार कीजियेगा जरूर।

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