
‘मैला आँचल’ हिन्दी के आंचलिक उपन्यासों में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। फणीश्वरनाथ रेणु द्वारा 1954 ई. में ‘मैला आँचल’ की रचना हिन्दी उपन्यास के इतिहास में उतनी ही क्रांतिकारी घटना है, जितनी 1936 ई. में प्रेमचंद द्वारा गोदान की रचना। फणीश्वरनाथ रेणु ने ‘मैला आँचल’ को आंचलिक उपन्यास के रूप में पेश किया है। वे भूमिका में लिखते हैं कि “यह है मैला आँचल, एक आंचलिक उपन्यास। कथानक है पूर्णिया…। मैंने इसके एक हिस्से के एक ही गाँव को – पिछड़े गाँवों का प्रतीक मानकर, इस उपन्यास-कथा का क्षेत्र बनाया है।”

इस उपन्यास में वे सारी विशेषताएँ मिलती है जो किसी भी आंचलिक उपन्यास में पाई जाती हैं। जैसे- भौगोलिक पक्ष, सामाजिक जीवन, जाति व्यवस्था, नारी का स्थान और आर्थिक जीवन, राजनीतिक पक्ष ,सांस्कृतिक पक्ष। बात करें सांस्कृतिक पक्ष की तो उपन्यास में लोक संस्कृति के कई सुंदर चित्र खींचे हैं। यहां जो गांव दिखाया गया है उसमें किसी भी उत्सव धर्मी भारतीय गांव की तरह बात-बात पर सांस्कृतिक आयोजन होते हैं, जैसे बिदापत के नृत्य, जाट जतिन का खेल-
“सुनरी हमर जटिनियाँ हो बाबूजी,
पातरि बाँस के छौंकिनियाँ हो बाबूजी,
गोरी हमर जटिनियाँ हो बाबूजी,
चाननी रात के इँजोरिया हो बाबूजी !
नान्हीं-नान्हीं दैतवा, पातर ठोरवा…
छटके जैसन बिजलिया…।
रास्ते में कितने गाँव हैं, कितनी नदियाँ हैं, कितने घाट हैं और घटवार हैं। वह रास्ते के हर गाँव के मालिक मड़र, और नायक के यहाँ जाता है :
नायक जी हो नायक हो,
खोले देहो किवड़िया हो नायक जी,
ढूँढे देहो जटिनियाँ हो नायक जी…
गांव की एक जुटता में जातिवादी राजनीति को रेणु जी ने चित्रित किया है और बालदेव के माध्यम से अपनी व्यथा को व्यक्त भी किया है। “गंगा रे जमुनवाँ की धार नयनवाँ से नीर बही। फूटल भारथिया के भाग भारथमाता रोई रही…”

फणीश्वर नाथ ‘रेणु‘ (उपन्यासकार)
उपन्यास मूलत अपने उदय के समय से ही शिक्षित, शहरी, मध्य वर्ग की विद्या माना जाता रहा है। इस वर्ग की भाषा में अनुशासन मर्यादा और संस्कारों का होना बहुत स्वाभाविक है। रेणु की खासियत यह है कि उन्होंने ‘मैला आँचल’ के सहारे उपन्यास विधा के स्वभाव को ही बदल दिया है। छपे हुए शब्दों के सुरक्षित दुनिया का पाठक ‘मैला आँचल’ पढ़कर अचानक गांव के मौलिक संस्कृति का हिस्सा बन जाता है।
पुस्तक समीक्षा – अनीश कुमार ‘देव’