“इन्साँ की ख़्वाहिशों की कोई इन्तिहा नहीं,
दो गज़ ज़मीं भी चाहिए, दो गज़ कफ़न के बाद”
– कैफ़ी आज़मी
भारतीय उर्दू साहित्य के प्रख्यात शायर और लेखक कैफ़ी आज़मी 20वीं सदी के प्रगतिशील लेखकों में से एक है। शेर, नज़्म, कविताओं के जरिए कैफ़ी साहब ने समाज में व्याप्त जवलंत मुद्दों सहित वनों की कटाई जैसे विश्वव्यापी संकट पर पुरजोर तरीके से लिखा। अपनी लेखनी के जीवन काल में कैफ़ी साहब ने फिल्मों के लिए भी गाने और पटकथाओं को लिखा। उनके लिखे गाने आज भी उसी उत्साह और उमंग से गुनगुनाए जाते है।
कैफ़ी आज़मी अपनी जीवनसाथी शौकत कैफ़ी और बेटी शबाना आज़मी के साथ
11 साल की उम्र में कैफ़ी आज़मी ने थाम लिया कलम
कैफ़ी आज़मी के माता – पिता की ख्वाइश थी की कैफी एक प्रसिद्ध मौलवी बने और इसके लिए उन्होंने अपने बेटे को विद्यालय भेजना शुरू किया पर कैफ़ी का दिल लेखनी की ओर बढ़ता चला गया। 11 साल की उम्र में उन्होंने अपनी पहली कविता लिखी – “इतना तो ज़िंदगी में किसी के ख़लल पड़े, हंसने से हो सुकून न रोने से कल पड़े।”
कैफ़ी ने जब दिया परिंदों के दर्द को शब्द
वनों की कटाई कैसे पंक्षियों को दुख पहुंचाती है, इस विषय को कैफ़ी साहब ने अपनी गज़ल में बखूबी बयां किया है। उनकी गज़ल आज भी पाठकों को पर्यावरण और पंक्षियों की मदद के लिए जागरूक करती है।
फिल्मी दुनिया में दाखिला
ये किस्सा उस वक्त का है जब कैफ़ी साहब मुशायरे में जाकर अपनी रचनाएं लोगों को सुनाते थे। इसी दौरान उनकी मुलाकात अपनी बेगम शौकत आज़मी से हुई। शौकत आज़मी फिल्मों में काम किया करती थी। शौकत जी से शादी करने के बाद कैफ़ी साहब ने उर्दू अख़बार के लिए लिखना शुरू किया पर घर चलाने में पैसे की तंगी के कारण उन्होंने फिल्मी दुनिया का रुख किया। उन्होंने फिल्मों के लिए गीत लिखना शुरू किया, धीरे – धीरे ये सिलसिला फिल्मों के लिए पटकथा और संवाद लिखने तक पहुंचा।
शोध एवं लेखन – बसुन्धरा कुमारी