
सिवान जिले के वीर सपूत रामबाबू सिंह देश की रक्षा करते हुए शहीद हो गए। कुछ महीने पहले ही उन्होंने सात फेरे लिए थे और जल्द ही पिता बनने वाले थे। परिवार में खुशियों की तैयारियां चल रही थीं, लेकिन अब घर में मातम पसरा है। जहां एक ओर देश उनकी बहादुरी पर गर्व कर रहा है, वहीं दूसरी ओर उनके परिवार का हर सदस्य गहरे सदमे में है। उनकी पत्नी की आंखें अपने अधूरे सपनों को ढूंढ रही हैं और उस किलकारी का इंतज़ार अब एक टीस में बदल गया है।
रामबाबू सिंह ने देश के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए, लेकिन पीछे छोड़ गए एक ऐसा खालीपन, जिसे कोई शब्द नहीं भर सकता। उनका बलिदान हर देशवासी के दिल को छू जाता है – क्योंकि वे सिर्फ एक जवान नहीं थे, बल्कि किसी के बेटे, किसी के पति, और एक होने वाले पिता थे।
एक पत्नी की संवेदना, उस मर्म को शब्द दिया है छपरा शहर के युवा लेखक ‘प्रेम शंकर’ ने, ये एक कोशिश है उस विरह वेदना को टटोलने की, ये कोशिश है उस आँचल की कोर को समझने की, जो आँचल आज अश्कों से भींग कर वीरता की गवाही बन गया, ये कोशिश है एक ‘वीरांगना’ की करुणा को आमजन तक पहुंचाने की…
हां मैं जानती हूं इश्क तुम्हारी थी
इस धरा से, वसुंधरा, धरित्री से।
प्यार तुम्हें था सिर्फ मां भारती से।।
पर हमारे प्रति भी तो कुछ जिम्मेदारी थी ।
अकेला छोड़ गए हमें वादा पूरा भी ना किया,
ये आदत तो नहीं तुम्हारी थी।।
चलो मान बेइंतहा इश्क की निशानी है शहादत
मगर उनकी भी न सोची, जो तुम्हारे लिए करते थे इबादत।
तुम कहते हो गर्व करूं तुम्हारे शहादत पे
बताओ, कैसे ना बहाऊ आंसू तुम्हारे शहादत पे।
हां हमें गर्व है, मगर उसका क्या जो खालीपन आ गई है
हमारे जीवन में, सदा के लिए तुम्हारे बदौलत।
अब बताओ ना क्या करूं उस वर्दी का
जिसके शान पर तुम मरते थे।
बताओ ना क्या करूं उसे तिरंगे का जो थम गए
मेरे हाथों में, जिसके आने के खातिर तुम जीते थे।
समझ नहीं आता कैसे जियु मैं तुम्हारे
बिन, कैसे पग बढ़ाऊं आगे।
एक तुम ही तो थे सहारा मेरे
इस भूमि पर सबसे न्यारा मेरे।
अच्छा होता अगर मुझे भी अपने साथ लिए चलते
तुम वीर होते तो मैं ‘वीरांगना’ होती ।
और वहां तो हम एक साथ जीते ।।
– प्रेम शंकर