
नदी किनारे की जिंदगी एक बांध के सहारे बंध के सिमट जाती है। बाढ़ का पानी और पूरा गाँव बांध पर, बेबस लाचार आंखें न सिर्फ अपने पेट की चिंता करती हैं बल्कि वे अपने साथ-साथ गाय ,भैंस, बैल और अन्य पशुओं की संरक्षण के लिए भी हर त्याग करती हैं। जो उस बाढ़ की लबलबाती पानी में छोड़ आती है, अपना बचपन, अपनी जवानी और अपना बुढ़ापा। इन्हीं सब विमर्शों को समेटी हुई है ‘अतुल कुमार राय’ की ‘चाँदपुर की चंदा’। ये उपन्यास सिर्फ चाँदपुर की कठिन समस्याओं को ही उजागर नहीं करती है बल्कि उत्सवधर्मी भारतीय गाँव की हर उन समस्याओं को दृढ़ता से बतलाती है- जैसे बाढ़ से जूझता हुआ गाँव ,गाँव से दूर अस्पताल का होना ,सुचारू व्यवस्थित रूप से चलता हुआ नकल व्यवस्था। वहीं 21वीं सदी में दहेज के आग़ में जलती हुई दुल्हन।
“चाँदपुर ! सरयू किनारे बसा बलिया जिले का आखिरी गाँव!
कहते हैं चाँद पर पानी है कि नहीं ये तो शोध का विषय है
लेकिन चाँदपुर की किस्मत में पानी ही पानी है।
चाँदपुर चलता है पानी में, जीता है
पानी में और टूटता भी है पानी में।”
इस उपन्यास ने समाज के हर पहलू को दिखाया है, जैसे फोटो खिंचवा प्रशासन ,राजनीतिक जीवन, ग्रामीण आर्थिक व्यवस्था। इसके अलावा ‘झाझा बाबा’ के चरित्र के माध्यम से ज़िंदगी के उस पहलू को भी दिखाया गया है जो हमारे समाज की मानवता को मार्गदर्शित करते हैं।
“हाँ, गाँव के उत्तर एक निर्माणाधीन अस्पताल भी है।
जो लगभग दो साल से बीमार पड़ा है।
उसकी दीवारों का कुल जमा इतना प्रयोग है
कि उस पर गाँव की महिलाओं द्वारा गोबर
आसानी से पाथा जा सकता है।”
यह कहानी सरजू के किनारे बसी एक गाँव चाँदपुर की है, जो उत्तर टोला और पश्चिम टोला की पिंकी और मंटू के बेजोड़ प्रेम कहानी पर है। कुछ जगह पर कहानी आपको हंसते-हंसाते लोटपोट कर देगी तो कहीं आपकी आंखों को पन्ने भिगो देने पर मजबूर भी।
“मोहब्बत यूपी बोर्ड का एग्जाम नहीं है कि हम-तुम नकल मारकर पास हो जाएँगे। मोहब्बत वो दीर्घ उत्तरीय प्रश्न है, जिसका जवाब न विद्या की गाइड में मिल सकता है, न काका की गाइड में। अब तो हम सोच लिए हैं कि इस एग्जाम में फेल ही होना है। दीपक-आरती बस फिल्म में ही मिलते हैं, असल जिंदगी में नहीं!”

लेखक ने सामान्य जीवन की दिनचर्या को बहुत सूक्ष्मता से दर्शाया है, चाहे स्त्री विमर्श ही क्यों ना हो। समीक्षात्मक दृष्टि से देखें तो लेखक पिंकी नामक किरदार के माध्यम से हमें उस पहलू से अवगत कराना चाहता है, जहां समाज में स्त्री को मात्र एक वस्तु समझा जाता है। जिसकी योग्यता का, अभिलाषाओं का, कुछ कर गुजरने के जज़्बा को, यह समाज दबा देती है। अगर स्त्री कुछ करना चाहती है तो उसके चरित्र पर कीचड़ उछाल दिया जाता है। ‘अतुल कुमार राय’ लिखित ‘चाँदपुर की चंदा’ में पिंकी समाज की वही स्त्री है, जिसने समाज की हर बिंदु को रेखांकित किया है। हम तो एक पाठक के रूप में चाँदपुर गांव का हिस्सा हो गए थे, कई दिनों तक पिंकी और मंटू के पश्चिम टोला और उत्तर टोला में मंटुआ के साथ चंदा काट रहे थे। बाकी आप ‘चाँदपुर की चंदा’ के आस्वादन के समय इस उपन्यास के साथ आसानी से जुड़ जाएंगे और कठिनता से निकल पाएंगे।
पुस्तक समीक्षा – अनीश कुमार ‘देव’