हिंदी दिवस विशेष: अभिनंदन द्विवेदी

हिंदी दिवस विशेष: अभिनंदन द्विवेदी

हिंदी दिवस विशेष:आसान शब्दों में बड़ी बात कहना आसान नहीं होता।

एक द्वंद है, प्राचीन और असंख्य के बीच, पुरातन और वैश्विक के बीच, आदिम और दीप्तिमान के बीच। भाषा की अनुक्रमणिका पर जब नज़र फेरते हैं, तब संविधान की आठवीं अनुसूची में 22 भाषाएं उल्लेखनीय दिखाई पड़ती है। असमिया, बंगाली, गुजराती, कनड़, कश्मीरी, कोंकणी, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली, उड़िया, पंजाबी, उर्दू, संस्कृत, हिंदी, तमिल इत्यादि। ऊपर में उपयोग की गई विशेषण अंतिम की तीन (संस्कृत, हिंदी, तमिल) भाषा पर ही केंद्रित है। संस्कृत और तमिल के नाम जहां समृद्ध और सबसे प्राचीन भाषा का सरताज है वहीं हिंदी भाषा का इतिहास एक हज़ार साल पुराना पता चलता है। अतीत के पन्नों में दिव्य वाणी को समेटे इन तमाम भाषाओं के बोल – चाल में उपयोग का किस्सा कुछ और ही बयां करती है। 2011 में हुए सर्वे में ये पता चलता है कि देश की 120 करोड़ जनसंख्या का 0.02 प्रतिशत लोग ही संस्कृत बोलतें हैं। बात चौकाने वाली है लेकिन आंकड़ा कुछ यही इशारा कर रहा है। साल 2010 में, उत्तराखंड संस्कृत को अपनी दूसरी आधिकारिक भाषा के रूप में सूचीबद्ध करने वाला भारत का पहला राज्य बना था। 2011 में जारी रिपोर्ट के मुताबिक करीब 5.7 प्रतिशत भारतीय तमिल और 43. 63 प्रतिशत भारतीय हिंदी भाषा बोलते हैं। बावजूद इसके हिंदी अपने आप को राष्ट्रभाषा के रूप में विराजमान होने की राह देख रही है, ये सपना कब साकार होगा ! ये ख़ुद में एक सवाल है ? मशहूर गीतकार समीर ‘अनजान’ लिखते हैं कि आसान शब्दों में बड़ी बात कहना आसान नहीं होता। हिंदी की तासीर भी कुछ यही बयां करती है। हिंदी भाषा ने ख़ुद को आम आदमी की भाषा के रूप में प्रदर्शित किया है।

हिंदी के विश्वव्यापी बनने की कहानी शुरू होती है भारतेन्दु हरिश्चंद्र से। यहां ये ज़िक्र इसलिए भी क्योंकि हिंदी और हिंदी साहित्य के बीच प्रेम ठीक वैसा ही है जैसे पानी में मछली का जीवित रहना। भारतेंदु हरिश्चंद्र हिंदी साहित्य के शीश कहे जाते हैं। उन्होंने हिंदी साहित्य को वो वृक्ष दिया, जिसकी छाया में आज हिंदी साहित्य फलफूल रहा है। उन्होंने हिंदी साहित्य को वो आलोक दिया जिसे हिंदी भाषी अनादिकाल तक याद रखेंगे। एक ओर जहां भारतेंदु जी ने हिंदी कविता को राष्ट्र चेतना और देशोद्धार की पवित्र चेतना से सुसज्जित किया है। वहीं दूसरी ओर हिंदी गद्द साहित्य को समृद्ध बनाने का प्रयास किया। भारतेंदु जी ने हिंदी में कई नाटक, कहानी, जीवनी, निबंध इत्यादि विविध गद्द विधाओं का उद्गम किया। सत्य हरिश्चन्द्र, चन्द्रावली, भारतदुर्दशा आदि नाटक, सुलोचना, मदालसा, लीलावती आदि निबंध का सृजन उनकी कलम की पहचान स्थापित करती है। इस अलंकृत विरासत को अपनी शब्दों की वेग से रामधारी सिंह दिनकर, हरिवंशराय बच्चन सलीके कवि और लेखकों ने हिंदी को विश्वतर पर ले जाने में कोई कसर नहीं छोड़ा।

वर्तमान परिदृश्य में हिंदी समूचे विश्व में आकर्षण का केंद्र बनती जा रही है। एक रिसर्च के मुताबिक 140 से अधिक विश्विद्यालय में हिंदी का पठन – पाठन होना गर्व की अनुभूति प्रदान करने जैसा है। हिंदी के स्वर्णिम इतिहास और संघर्ष की कहानी के बीच उर्दू की तहज़ीब और तबस्सुम को भाषा की इस पठकथा से अछूता नहीं छोड़ा जा सकता। तब मशहूर कवि कुमार विश्वास की लिखी पंक्तियां याद आती हैं कि ” ये उर्दू बज़्म है और मैं तो हिंदी माँ का जाया हूं, जुबानें मुल्क़ की बहनें हैं ये पैग़ाम लाया हूँ, मुझे दुगनी मोहब्बत से सुनो उर्दू ज़बां वालों, मैं अपनी माँ का बेटा हूँ, मैं घर मौसी के आया हूँ…”।

~ अभिनंदन द्विवेदी

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