कविता: प्रेम शंकर

धुंध का शिकार हूं,
किरण पे मैं सवार हूं,
डमरू सा बजता हुआ,
गौरी का मै श्रृंगार हूं।।
हां, धुंध का शिकार हूं,
किरण पे मैं सवार हूं।।

मुझमें है प्रतिक्षा नहीं,
भावना आपार है,
शक्ति कि तरह सास्वत,
इस जहां का पहरेदार हूं।
धुंध का शिकार हूं ,
किरण पे मैं सवार हूं।।

दुःख जिन्दगी में अब नही,
डर का कोई सबब नही।
सुन्य से संसार तक,
जन्म से निर्वाण तक,
मैं ही तो एक मात्र हूं।।

अजन्मा के ज्ञान से,
सुन्य के पहचान तक,
कोटी-कोटी भरे,
तारों के ज्ञान तक।
मंदिरों के घंटों से,
मस्जिदों के अज़ान तक।
मैं ही तो सर्वमान हूं।।।

धुंध का शिकार हूं,
किरण पे मैं सवार हूं।।
दिखता नहीं सूर्यास्त मुझमें,
कण कण में दिव्यमान हूं।।।

मुझको, डर ही क्यों रहे,
बेचैन, मैं क्यों हो रहा।?
मसाल ले के जब खड़ा,
अंधेरों से क्या वास्ता मेरा।?
‘अडिग’ खड़ा यहां मैं,
सूर्य-कमल द्वार हूं।।

धुंध का शिकार हूं,
किरण पे मैं सवार हूं।
प्रारम्भ से प्रारब्ध तक,
आत्म से अंत तक।।
सुदर्शन से कवंध तक
मैं ही विराजमान हूं।।

धुंध का शिकार हूं
किरण पे मैं सवार हूं।…
धुंध का शिकार हूं
किरण पे मैं सवार हूं।….

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