मिर्जा ग़ालिब: ग़ालिब इश्क़ को जीते थे।

हैं और भी दुनिया में सुखन्वर बहुत अच्छे कहते हैं कि ग़ालिब का है अन्दाज़-ए बयां और

जी हम बात कर रहे है मिर्ज़ा असद उल्लाह बेग खां उर्फ “ग़ालिब” ग़ालिब को गुजरे एक वक़्त हो गया समय बदला जमाना बदला लोग बदले लेकिन एक नाम जो लोगो के जुबान और जेहन से आज तक नहीं उतरा वो हैं मिर्ज़ा ग़ालिब |
27 दिसंबर 1797 को मिर्ज़ा का जन्म आगरा शहर में हुआ । मिर्जा की शादी कम उम्र में ही दिल्ली में हो गई थी। दिल्ली उनका ससुराल था अपने पिता के इंतकाल के बाद वे दिल्ली में ही रहने लगे। महज़ 13 वर्ष की उम्र में ही ग़ालिब ने शायरी लिखनी शुरू कर दी थी। रहते तो वो दिल्ली में थे लेकिन दिल्ली के दिल मे मिर्ज़ा को जगह नहीं मिली थी।


मिर्जा का मिजाज बिल्कुल अनोखा था एक बार उनके दोस्त बंशीधर ने उनकी आर्थिक तंगी देख के कुछ मदद करनी चाहिए। तो ग़ालिब ने जबाब दिया अरे मिया कुछ लोगो का काम है कर्ज देना उनका रोजगार क्यों बंद कर रहे हो। ग़ालिब का कहना था कि भले कर्ज लूंगा लेकिन एहसान नहीं लूंगा।

अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जाएँगे।

मर के भी चैन न पाया तो किधर जाएँगे।।

हम नहीं वो जो करें खून का दावा तुझ पर।

बल्कि पूछेगा खुदा भी तो मुकर जाएँगे।।

ये शेर ग़ालिब का नहीं बल्कि शेख इब्राहीम ज़ौक़ का है अगर बात ग़ालिब की हो रही है तो जौक का जिक्र भी जरूरी हैं।

एक समय जब बहादुर शाह ज़फर के दरबार लाल किला में जब मुशायरा हुआ तो जौक ने ग़ालिब को पैगाम भेजा। जब मिर्जा वँहा फ़ारसी में शेर पढ़ना शुरू किए । शाह ज़फर के अलावा किसी को कुछ समझ नहीं आया। मिर्जा नाराज़ हो के महफ़िल से चले आये। और तभी से मिर्ज़ा और जीक के बीच अनबन रहने लगी।

मिर्जा को गज़ब का हुनर हासिल था वो शाम को अपनी बेग़म का दुपट्टा लेते और रात भर गिरह लगाते और सुबह जब गिरह खोलते तो हर एक गिरह पर एक शेर तैयार हो गया होता था।

एक दिन की बात है शेख इब्राहीम ज़ौक़ पालकी से जा रहे थे तभी मिर्ज़ा ने उनपर जुमला कस दिया,

बना है शाह का मुसाहिब फिर है इतराता,

इस बात को सुनकर जौक वहा से चुप-चाप चल दिये इसकी शिकायत उन्होंने ने •बादशाह से की बादशाह ने मिर्ज़ा को मुशायरा में आने का पैगाम भेजा। जब मुशायरे में बादशाह ने पूछा कि मिर्ज़ा आप हमारे उस्ताद शायर जौंक का मजाक क्यों उड़ाये। इस पर ग़ालिब ने कहा हुजूर मैंने कोई जुमला नही कसा ये तो मेरे ग़ज़ल का मिसरा है। तोबादशाह ने कहा ठीक है आप मिसरा सुना दीजिए।

हुआ है शह का मुसाहिब फिरे है इतराता वगरना शहर में ‘ग़ालिब’ की आबरू क्या है। इसको सुनते सभी वाह वाह करने लगे। फिर जौक ने कहा हुज़ूर जब मिसरा इतना उम्दा है तो पूरी ग़ज़ल कैसी होगी मिर्जा पूरी ग़ज़ल ही सुना दीजिए। मिर्ज़ा ने एक कागज़ निकाला और पढ़ना शुरू किए।

हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है।

तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है।।

रंगों में दौड़ने-फिरने के हम नहीं कायल।

जब आँख ही से न टपका, तो फिर लहू क्या है।।

इस ग़ज़ल को सुनते ही सब वाह वाह करने लगे मिर्ज़ा ने महफ़िल ही लूट लिया जौक तो वाह वाह करते नही थक रहे थे।

तभी महफ़िल में बैठे एक शायर ने जब उस कागज़ को लेकर देखा उनके होश उड़ गए कागज कोरा था कुछ लिखा हुआ नही था। मिर्ज़ा उसी वक़्त उस ग़ज़ल को बना दिये थे।

रखते के तुम ही उस्ताद नहीं ग़ालिब कहते है कि अगले ज़माने में कोई मीर भी था।

ये शेर ग़ालिब ने तब कही थी जब एक फ़क़ीर से दिल्ली के शायर मीर तकि मीर की ग़ज़ल पहली बार सुने।

ग़ालिब हमेशा धर्म के नाम पे बाटने वालों की आलोचना करते उनका येही मानना था कि हम हुन्दुस्तानी है वे दीवाली पर जम के जुआ खेलते टिका लगते प्रसाद खाते और जब कोई पूछे कि मिर्जा आप तो मुसलमान है दीवाली पर जुआ खेल रहे तो वे कहते मैं ईद पे भी जुआ खेलता हूँ लेकिन ईद में खेलने की कोई रश्म नहीं है ।

कोई उम्मीद बर नहीं आती कोई सूरत नज़र नहीं आती।

मौत का एक दिन मुअय्यन है नींद क्यों रात भर नहीं आती।।

आगे आती थी हाल-ए-दिल पे हँसी।

अब किसी बात पर नहीं आती।।

ग़ालिब के जीवन का एक ये भी सच है कि ज़िन्दगी और हालात दोनों ने एक साथ उनको ग़म दिए। मिर्ज़ा की पेंशन रुक गई थी और देखते देखते वो पूरी दिल्ली के कर्जदार हो गए थे और

इसी बीच उनकी बेग़म ने सात औलादों को जन्म दिया मग़र सभी खुदा को प्यारे हो गए।

मिर्ज़ा के जीवन में उदासी और मायूसी क्या जिक्र करें ईद की सेवइयां दीवाली की मिठाईया सब फीकी पर गई थी मिर्ज़ा के लिए कर्ज लेते तो बोरी भर शराब खरीद लाते सुबह से शाम तक पीते और बेग़म के पूछने पे कहते अल्लाह मियां ने खिलाने के वादा किया तो पीने के लिये तो खुद सोचना पड़ेगा।

कलकत्ते का जो जिक्र किया तूने हमनशी।

इक तीर मेरे सीने में मारा के हाथ हाये।।

ग़ालिब अपनी रुकी पेंशन पाने के शीलशीले में कोलकाता गए थे मगर उनकी पेंशन बहाल नही हुई।

मिर्ज़ा के जीवन के आखरी पड़ाव में जब अंग्रेजी हुकूमत हिंदुस्तान पर हावी हुई और बहादुर शाह ज़फर को अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर रंगून भेज दिया।

तब से ग़ालिब लाल किला में जाना छोड़ दिये थे। एक बार जब अंग्रेज सिपाहियों ने ग़ालिब को बाग़ी समझकर गिरफ्तार कर लिया और मजिस्ट्रेट के सामने ले गए। मजिस्ट्रेट ने पूछा तुम क्या करता है इश्क़ ने ‘ग़ालिब’ निकम्मा कर दिया वर्ना हम भी आदमी थे काम के मजिस्ट्रेट ने कहा शायर है। हिन्दू है कि मुसलमान है। ने ग़ालिब ने कहा जी आधा मुसलमान हूँ शराब पीता हूँ सुअर नहीं खाता। इस बात पर अंग्रेज मजिस्ट्रेट जोर से हँसा और मिर्जा को रिहा कर दिया।

अपने जीवन के अंतिम क्षण में मिर्ज़ा आजान सुनके मस्जिद तक तो जाते लेकिन मस्जिद के अंदर नहीं जाते। एक दिन उनकी बेग़म ने कहा क्यों नहीं सुलह कर लेते खुदा से तो मिर्ज़ा ने जबाब दिया मेरी बिगरी ही कब है उससे, मैं सजदा नहीं किया इसलिए शिकायत भी नहीं करता।

15 फरवरी 1869 का दिन जगह दिल्ली उर्दू और फ़ारसी के इस महान शायर जो जीते जी तो पूरी दिल्ली के कर्ज़दार रहे मगर जाते ही पूरी दुनिया पर अपना कर्ज चढ़ा गए।

हम तो ये कानहेंगे

आसमां से कभी ना हरे ग़ालिब तुम वो परिंदा हो।

ज़िन्दगी को ठुकरा कर ग़ालिब तुम ज़िंदा हो ।

अलबेला

मिर्जा गालिब के चंद शेर:

हम को मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन।

दिल के खुश रखने को गालिब’ ये खयाल अच्छा है।।

हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले।

बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले।।

इशरत-ए-कतरा है दरिया में फ़ना हो जाना।

दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना।।

काबा किस मुंह से जाओगे ‘गालिब’।

शर्म तुम को मगर नहीं आती।।

उनके देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक।

वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है।।

लेखक- अलबेला

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